थोड़ा और समय - Hindi poem on daily routine of human life, precious moment

सुबह निकलने से पहले ज़रा


बैठ जाता उन बुजुर्गों के पास


पुराने चश्मे से झांकती आँखें


जो तरसती हैं चेहरा देखने को


बस कुछ ही पलों की बात थी 


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लंच किया तूने दोस्तों के संग


कर देता व्हाट्सेप पत्नी को भी


सबको खिलाकर खुद खाया या


लेट हो गयी परसों की ही तरह


कुछ सेकण्ड ही तो लगते तेरे 


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निकलने से पहले ऑफिस से


देख लेता अपने सहकर्मी को


जो संग चलने को कह रहा था


पर एक मेल करने को रुका था


बस कुछ मिनटों की बात थी


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निवाला मुंह में डालने से पहले


सोच लेता अपने भाई को भी


जो अभी अभी घर आया था


और वॉशरूम से आने वाला था


बस कुछ देर की तो बात थी


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बिस्तर पर सोने से पहले ज़रा


खेलता उस मासूम के साथ भी


दोपहर से पापा पापा रटता रहा


अहसास उसका भी तो था कुछ


थोड़ा और समय ही तो लगता 


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- मिथिलेश 'अनभिज्ञ'



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